गुरु गोविन्द सिंह
गुरु गोविन्द सिंह सिक्खों के दशम् गुरु थे। वे एक मात्र ऐसे व्यक्ति थे जिनकी निरन्तर तीन पीढ़ियाँ देश-धर्म पर बलिदान हुईं। इनका जन्म पौष सुदी सप्तमी वि.सं. 1723 तदानुसार 22 दिसम्बर 1666 ई. को पटना में हुआ था। इनकी माता गुजर कौर तथा पिता गुरु तेगबहादुर थे, जो सिक्खों के नौ गुरु थे।
गुरु तेगबहादुर के बलिदान के बाद गोविन्दराय गुरु गद्दी पर आसीन हुए। 3 मार्च 1699 ई. वैसाखी को आनन्दपुर साहिब में 'खालसा' पंथ की स्थापना की
तथा नारा दिया, "वाहे गुरु जी दा खालसा वाहे गुरु जी दी फतह।" उन्होंने सिक्खों को पाँच निशानियाँ- केश, कंघा, कड़ा, कच्छ और कृपाण धारण करने का आदेश दिया तथा अपने सभी अनुयाइओं के लिए अनिवार्य कर दिया कि वे अपने नाम के
साथ सिंह लगाएंगे।
गुरु गोविन्द सिंह के चार पुत्र थे। दो बड़े पुत्र अजीत सिंह व जुझार सिंह चमकौर के किले पर युद्ध में लड़ते हुए शहीद हुए। छोटे दोनों पुत्रों फतेह सिंह व जोरावर सिंह को धर्म पर अडिग रहने के कारण जिन्दा दीवार में चिनवा दिया गया।
पुत्रों के बलिदान पर पिता ने कहा-
चार मुए तो क्या हुआ, जीवित कई हजार। उनका कहना था कि जुल्म सहना कायरता है, इससे अत्याचारी के हौंसले बढ़ते हैं। उन्हें इस बात का गर्व था कि वे मर्यादापुरुषोत्तम श्रीराम की संतान हैं। इसका बखान उन्होंने 'विचित्र नाटक' में किया है। उन्होंने कहा था -चिड़ियों से मैं बाज तुड़ाऊँ, सवा लाख से एक लड़ाऊँ।
गुरु गोविन्द सिंह महान विद्वान भी थे तथा विद्वानों का आदर करते थे। उन्होंने देश के 52 विद्वानों की सभा गठित की। हिन्दी में सुनीति प्रकाश, सर्वलोह प्रकाश, प्रेम सुमार्ग, बुद्धिसागर और चण्डी चरित्र लिखीं।
गुरु गोविन्द सिंह ने विभिन्न गुरुओं, भक्तों एवं सन्तों की वाणी 'गुरु ग्रंथ साहिब' को गुरु गद्दी पर स्थापित किया। उन्होंने अपने अनुयायियों को कहा कि अब उनके बाद कोई देहधारी गुरु नहीं होगा और गुरु ग्रंथ साहिब ही आगे गुरु के रूप में उनका मार्गदर्शन करेंगे, क्योंकि उसमें मानव जीवन की प्रत्येक समस्या का समाधान है। सात अक्टूबर 1708 ई. को गुरु गोविन्द सिंह यह कहते हुए चिर निद्रा में सो गये-
खालसा मेरो रूप है खास, खालसा में हौं करो निवास।
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