श्री रामानुजाचार्य
आज से हजार साल पहले सन 1017 में तमिलनाडु के श्रीपेरंबदूर गांव में रामानुजाचार्य जी का जन्म हुआ । वैष्णव धर्म का प्रसार करने वाले श्री रामानुजाचार्य जी का जीवन मानवता और भक्तिरसपूर्ण था।
रामानुजाचार्य जी ने पाँच आचार्यों से अलग-अलग विषय का ज्ञान प्राप्त किया, इन आचार्यों में एक गोष्ठीपूर्ण स्वामी थे जिन्होंने दीक्षा देने के पूर्व एक मंत्र उनके कानों में कहा के यह रहस्यमंत्र है तथा यह सुननेवाला स्वर्ग सुख पाएगा।
इस मंत्र को पाने के थोड़े ही समय बाद श्रीरामानुजाचार्य नरसिंह स्वामी रहे थे। तभी वहां भीड़ देख वे एक ऊँची जगह पर खड़े होकर मंदिर के पास गुजर उस रहस्यमयमंत्र का जोर-जोर से उच्चारण करने लगे तथा लोगों से भी उस मंत्र का
उच्चारण करवाने लगे।
यह बात उनके गुरु तक पहुंची तो उन्होंने तुरंत आकर रामानुज को डांट कर कहा कि क्या गुरु आज्ञा का अर्थ उन्हें पता नहीं? और क्यूँ गुरु की आज्ञा का पालन ना करते हुए उन्होंने वह रहस्य मंत्र सबको सुनाया।
तब रामानुज ने जो कहा वो उनके चरित्र की गरिमा बढ़ाने वाला है। उन्होंने कहा कि गुरु आज्ञा का पालन न करने हेतु उन्हें नरक में जाना पड़ेगा मगर यदि उस मंत्र को सुनने से स्वर्ग मिलता है तो वे अपने बन्धु/भगिनियों को यह स्वर्ग सुख मिलता
देख बहुत खुश हैं। फिर चाहे उन्हें नरक मिले तो भी कोई बात नहीं। मगर फिर भी उन्होंने गुरु आज्ञा का पालन न करने के लिए क्षमा भी मांगी तथा दंडित होना भी स्वीकार किया। ऐसे थे रामानुजाचार्य जी। सदा समाज की भलाई के बारे में सोचने वाले।
दृढ़ परन्तु बिनम्र।
सन् 1099 में उन्होंने मेलुकोट में ऐसे मंदिर का निर्माण किया जिसमें जाति के आधार पर किसी व्यक्ति के भी मंदिर प्रवेश को नकारा नहीं जाता।
120 वर्ष की आयु में सन् 1137 मेंश्री रामानुजाचार्य का निर्वाण हो गया।
मगर अपने पीछे एक सगुणभक्ति से ओतप्रोत भरा वैष्णव समाज मानवता की सेवा
करने के लिए छोड़ गये।
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